वाराणसी के प्रमुख मंदिर

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काशी धर्म एवं विद्या की पवित्र तथा प्राचीनतम् नगरी मे विख्यात है। वैदिक साहित्य की संहिताओं ब्राह्मण ग्रन्थों एवं उपनिष्दों में काशी का उल्लेख है। साथ ही पाणिनि, पतञ्जलि आदि ग्रन्थों में भी काशी की चर्चा है। पुराणों मे स्पष्ट है कि काशी क्षेत्र में पग-पग पर तीर्थ है। स्कन्दपुराण काशी-खण्ड के केवल दशवें अध्याय में चौसठ शिवलिङ्गो का उल्लेख है। हेन सांग ने उल्लेख किया है कि उसके समय में वाराणसी में लगभग सौ मंदिर थे। उनमें से एक भी सौ फीट से कम ऊँचा नहीं था।

स्कंद महापुराण में काशी का परिचय, माहात्म्य तथा उसके आधिदैविक स्वरूप का विशद वर्णन है। काशी को आनन्दवन एंव वाराणसी नाम से भी जाना जाता है। इसकी महिमा का आख्यान स्वयं भगवान विश्वनाथ ने एक बार भगवती पार्वती जी से किया था, जिसे उनके पुत्र कार्तिकेय (स्कंद) ने अपनी माँ की गोद में बैठे-बैठे सुना था। उसी महिमा का वर्णन कार्तिकेय ने कालान्तर में अगस्त्य ऋषि से किया और वही कथा स्कंदपुराण के अंतर्गत काशीखंड में वर्णित है। काशीखण्ड में विंध्यपर्वत और नारदजी का संवाद का वर्णन है ।

काशी - भगवान विष्णु (माधव) की पुरी[संपादित करें]

विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरि के आनन्दाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए। काशी में माधव गोपियो के साथ पूजे जाते हैं, इस तीर्थ का नाम गोपी गोविंद है,

इसी स्थान पर गायो को भगवान शंकर ने लिंग स्वरूप में और मां गौरी ने मूर्ति स्वरूप में एक ही विग्रह में साथ-साथ साक्षात दर्शन दिए, गौओ के इस प्रकार शंकर और मा गौरी के प्रत्यक्ष दर्शन से गोप्रेक्ष नाम हुआ।

ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर भी वह सिर उन से अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गया।

गोलोक[संपादित करें]

गोलोक परम पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण का निवास स्थान है। जहाँ पर भगवान कृष्ण अपनी प्रेमिका व सर्वेश्वरी श्री राधा रानी संग निवास करते हैं। वैष्णव मत के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ही परंब्रह्म हैं और उनका निवास स्थान गोलोक धाम है, जोकि नित्य है, अर्थात सनातन है। इसी लोक को परमधाम कहा गया है। कई भगवद्भक्तों ने इस लोक की परिकल्पना की है। गर्ग संहिता व ब्रह्म संहिता मे इसका बड़ा ही सुंदर वर्णन हुआ है। बैकुंठ लोकों मे ये लोक सर्वश्रेष्ठ है, और इस लोक का स्वामित्व स्वयं भगवान श्री कृष्ण ही करते हैं। इस लोक मे भगवान अन्य गोपियों सहित निवास तो करते ही हैं, साथ ही नित्य रास इत्यादि क्रीड़ाएँ एवं महोत्सव निरंतर होते रहते हैं। इस लोक मे, भगवान कृष्ण तक पहुँचना ही हर मनुष्यात्मा का परंलक्ष्य माना जाता है।

श्री गर्ग-संहिता मे कहा गया है:

आनंदचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस्ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।
गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविंदमादिपुरुषम तमहं भजामि॥

अर्थात- जो सर्वात्मा होकर भी आनंदचिन्मयरसप्रतिभावित अपनी ही स्वरूपभूता उन प्रसिद्ध कलाओं (गोप, गोपी एवं गौओं) के साथ गोलोक मे ही निवास करते हैं, उन आदिपुरुष गोविंद की मै शरण ग्रहण करता हूँ।

गोलोक से गायों का काशी आगमन[संपादित करें]

गोलोक से भगवान शंकर की एक कथा बहुत ही प्रचलित है कि भगवान शंकर ने गऊ को काशी जाने का आदेश दिया, जब वे भोलेनाथ की आज्ञा से काशी पहुंचे तो भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर मां गौरी सहित दर्शन दिए, गायो को भगवान शंकर ने लिंग स्वरूप में और मां गौरी ने मूर्ति स्वरूप में एक ही विग्रह में साथ-साथ साक्षात दर्शन दिए, गौओ के इस प्रकार शंकर और मा गौरी के प्रत्यक्ष दर्शन से गोप्रेक्ष नाम हुआ। और भगवान ने आशीर्वाद दिया कि जो कलयुग में जो मनुष्य गोप्रेक्ष का दर्शन करेगा उसको अनंत गौदान का फल प्राप्त होगा, और क्लेश का नाश होगा ।

स्कंद पुराण में लिखा है -

महादेवस्य पूर्वेण गोप्रेक्षं लिंगमुत्तमम् ।। ९ ।।
तद्दर्शनाद्भवेत्सम्यग्गोदानजनितं फलम् ।।
गोलोकात्प्रेषिता गावः पूर्वं यच्छंभुना स्वयम् ।। १० ।।
वाराणसीं समायाता गोप्रेक्षं तत्ततः स्मृतम् ।।
गोप्रेक्षाद्दक्षिणेभागे दधीचीश्वरसंज्ञितम् ॥११॥

सरल भावनाुवाद - महादेव जी का पूर्व दिशा में एक बहुत ही अध्भुत लिंग है जिसे गोप्रेक्ष नाम से जाना जाता है, यह अर्धनारीश्वर का ऐसा स्वरूप जिसमें शिव स्वयं लिंग रूप में और मां गौरी स्वयं मूर्ति रूप में एक ही विग्रह में साथ-साथ विराजते हैं भगवान शंकर ने गायो को स्वयं गोलोक से काशी जाने का आदेश दिया, जब वे भोलेनाथ की आज्ञा से काशी पहुंचे तो भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर मां गौरी सहित दर्शन दिए, गायो को दर्शन देने के कारण गोप्रेक्ष तीर्थ और गोप्रेक्षेश्वर नाम हुआ, और यहां दर्शन करने से अनंत गौ दान का फल प्राप्त होता है और दम्पत्य क्लेश नाश होता है

विश्वनाथ की नगरी में तीर्थ स्थानों की कमी नहीं हैं, किन्तु मत्स्यपुराण के अनुसार पाँच तीर्थ प्रमुख (१) दशाश्वमेध, (२) लोलार्क कुण्ड, (३) केशव (आदि केशव), (४) बिन्दु माधव, (५) मणिकर्णिका। सन् ११९४ ई. में कुतुबद्दीन एबक ने काशी के एक सहस्र मंदिरों को तोड़-फोड़कर नष्ट कर दिया।

अलाउद्दीन खिलजी ने भी लगभग एक हजार मंदिरों को नष्ट कर धराशायी कर दिया। इस तोड़ फोड़ में विश्वनाथजी का मंदिर भी था, किन्तु सन् १५८५ ई. में सम्राट अकबर के राजस्व मन्त्री की सहायता से श्री नारायण भ ने विश्वनाथ जी के मंदिर को पुनः बनवाया सम्राट औरंगजेब ने काशी काशी के प्राचीन मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनवायी जो आज भी है। यही नहीं उसने हजारों मंदिरों को नष्ट कर दिया, जिसके कारण उस काल में बीस मंदिरों को भी गिन पाना कठिन हो गया था।

पुनर्निर्माण

इस काल के पश्चात् मराठा राजाओं तथा सरदारों ने अनेक मंदिर बनवाए। अंग्रेजों के शासन काल में बहुत से मंदिरों का निर्माण हुआ। सन् १८२८ ई. में प्रिन्सेप ने गणना करायी थी जिससे पता चला था कि काशी में एक हजार मंदिर विद्यमान थे। शेकिंरग ने लिखा है कि उसके समय में चौदह सौ पंचावन मंदिर थे। हैवेल का कथन है कि उसकी गणना के अनुसार उस समय लगभग ३५०० मंदिर थे।

वाराणसी के देवता विश्वनाथ के जिस मंदिर को औरंगजेब ने नष्ट किया था समीप ही १८वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में महारानी अहल्या बाई होलकर ने वर्तमान विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। त्रिस्थली सेतु के अनुसार पापी मनुष्य भी विश्वेश्वर के लिंग का स्पर्श कर पूजा कर सकता था। आधुनिक काल में प्रमुख तीर्थ स्थल है- (१) अस्सि और गंगा का संगम, (२) दशाश्वमेघ घाट, (३) मणिकर्णिका, (४) पंचगंगाघाट, (५) वरुणा तथा गंगा का संगम, (६) लोलार्क तीर्थ।

दशाश्वमेघ शताब्दियों से विख्यात है। भार शिव राजाओं ने दस अश्वमेघ यज्ञों के अनुष्ठान कर यहाँ अभिषेक किया था। मणिकर्णिका को मुक्ति क्षेत्र भी कहा जाता है। पंचगंगा में पाँच नदियों के धाराओं के मिलने की कल्पना की गई है। नारदीय पुराण तथा काशी-खण्ड में कहा गया है कि जो मनुष्य पंचगंगा में स्नान करता है वह पंच तत्वों में स्थित इस शरीर को पुनः धारण नही करता, मुक्त हो जाता है। वरुणा-गंगा का संगम तीर्थ आदि केशव घाट बहुत ही प्राचीन है। कन्नौज के गहड़वाल राजाओं ने जो विष्णु के भक्त थे, जब काशी को अपनी राजधानी बनायी तो इस भाग को और अधिक महत्व प्राप्त हुआ।

वाराणसी में बहुत से उपतीर्थ हैं। काशी खण्ड में ज्ञानवापी का उल्लेख मिलता है जो स्वयं में एक पवित्र स्थल है। विश्वनाथ मंदिर से दो मील की दूरी पर भैरोनाथ का मंदिर है, उन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है। उनके हाथ में बड़ी एवं मोटे पत्थर की लाठी होने के कारण इन्हें दण्डपाणि भी कहा जाता है। इसका वाहन कुत्ता है। काशी खण्ड में छप्पन विनायक (गणेश) मंदिर वर्णित है। ढुण्ढि़राज गणेश एवं बड़ गणेश में ही है। काशी के चोदह महालिंग प्रसिद्ध है। पुराणों में काशी के तीर्थों एवं उपतीर्थों का वर्णन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। लगभग एक सौ पच्चीस तीर्थों का वर्णन काशी खण्ड में मिलता है।

काशी की पंचक्रोशी का विस्तार पचास मील में है। इस मार्ग पर सैकड़ों तीर्थ है। तात्पर्य यह है कि काशी में तीर्थों की संख्या अगणित है। काशी केवल हिन्दू-धर्म के आस्थावानों का ही तीर्थस्थल नहीं है। जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ जी ने ७७७ ई. पूर्व में चैत्र कृष्ण-चतुर्थी को यहीं के मुहल्ला भेलूपुर में जन्म ग्रहण किया था। जैन धर्म के ही ग्वारहवें तीर्थकर श्रेयांसनाथ ने भी सारनाथ में जन्म ग्रहण किया था और अपने अहिंसा-धर्म का चतुर्दिक प्रसार किया था। अत जैन तीर्थस्थान के रूप में भी काशी का बहुत अधिक महत्व है। बौद्ध धर्म के तीर्थ स्थान के रूप में सारनाथ विश्वविख्यात है। भगवान गौतम बुद्ध ने गया में सम्बोधि प्राप्त करने के पश्चात् सारनाथ में आकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। आर्यो की संस्कृति के कार्य-कलापों का मुख्य केन्द्र काशी सदैव से वि स्तर का आकर्षण स्थल रहा है। महाप्रभु गुरुनानक देव, कबीर जैसे लोगों के पावन-स्पर्श से काशी का कण-कण तीर्थ स्थल बन चुका है। भगवान शिव को वाराणसी नगरी अत्यन्त प्रिय है। यह उन्हें आनन्द देती है। अतः यह आनन्दकानन या आनन्दवन है।

कुछ मुख्य मंदिर[संपादित करें]

  1. अन्नपूर्णा मंदिर, वाराणसी
  2. केदारेश्वर मंदिर, वाराणसी
  3. दुर्गा कुंड, वाराणसी
  4. गोप्रेक्षेश्वर (गौरीशंकर) मंदिर,
    लोलार्क कुंड
  5. वाराणसी के पर्यटन स्थल
  6. विशालाक्षी मंदिर, बनारस
  7. साक्षी गणेश मंदिर, बनारस
  8. चण्डीदेवी मन्दिर
  9. प्राचीन पूर्वमुखी शनिदेव महाराज लक्सा लक्ष्मी कुण्ड
  10. गोपी गोविंद शालिग्राम प्रतिमा स्कंद पुराण
    गोप्रेक्षेश्वर (गौरीशंकर) मंदिर
  11. गोपीगोविंद मंदिर