रासलीला

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कृष्ण और राधा रास करते हुए

रासलीला या कृष्णलीला में युवा और बालक कृष्ण की गतिविधियों का मंचन होता है। कृष्ण की मनमोहक अदाओं पर गोपियां यानी बृजबालाएं लट्टू थीं। कान्हा की मुरली का जादू ऐसा था कि गोपियां अपनी सुतबुत गंवा बैठती थीं। गोपियों के मदहोश होते ही शुरू होती थी कान्हा के मित्रों की शरारतें। माखन चुराना, मटकी फोड़ना, गोपियों के वस्त्र चुराना, जानवरों को चरने के लिए गांव से दूर-दूर छोड़ कर आना ही प्रमुख शरारतें थी, जिन पर पूरा वृन्दावन मोहित था। जन्माष्टमी के मौके पर कान्हा की इन सारी अठखेलियों को एक धागे में पिरोकर यानी उनको नाटकीय रूप देकर रासलीला या कृष्ण लीला खेली जाती है। इसीलिए जन्माष्टमी की तैयारियों में श्रीकृष्ण की रासलीला का आनन्द मथुरा, वृंदावन तक सीमित न रह कर पूरे देश में छा जाता है। जगह-जगह रासलीलाओं का मंचन होता है, जिनमें सजे-धजे श्री कृष्ण को अलग-अलग रूप रखकर राधा के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते दिखाया जाता है। इन रास-लीलाओं को देख दर्शकों को ऐसा लगता है मानो वे असलियत में श्रीकृष्ण के युग में पहुंच गए हों। रासलीला का वास्तविक अर्थ नृत्य,गान एवं अभिनय तीनो कलाओं के समावेश से है ।

रासलीला का वर्णन ग्रंथों में[संपादित करें]

श्रीमद्भागवत महापुराण , दशम स्कंध (पूर्वार्द्ध) के उनतीसवां अध्याय में श्री शुकदेव राजा परीक्षित को कहते हैं-“राजन रासलीला का समय आ गया है। शरदऋतु है, चाँदनी रात है, अनेकों प्रकार के फूल खिले हैं। इन गोपियों को प्रेमाभक्ति के द्वारा भगवान में लीन होना है। रास क्रीड़ा के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण इनके ह्रदय में प्रेम की उन्मुक्त पीर को उत्पन्न करते हैं।” आगे शुकदेव राजा परीक्षित को समझाते हैं कि भगवान से संबंध अर्थात् योग हो जाना ही जीव का लक्ष्य होना चाहिए। ये संबंध प्रेम का, क्रोध का, द्वेष का कैसा भी हो सकता है। रास में शरीर का बीच में कोई अस्तित्व ही नहीं है, वहाँ आत्मा होती है जो परमात्मा से जुड़ती है।

श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कंध (पूर्वार्द्ध) के तेंतीसवां अध्याय में महारास का विस्तार से उल्लेख आता है। बहुत सुंदर दृश्य है, श्रीकृष्ण मध्य में बाँसुरी लेकर खड़े हैं, गोपियाँ एक गोल दायरा बना कर खड़ी हैं, सबके संग भगवान श्रीकृष्ण भी हैं, वे बाँसुरी बजा रहे हैं, नृत्य कर रहे हैं, दिव्य शोभा है, आकाश में असंख्य देवी, देवता, गंधर्व, किन्नर आदि मग्न हो कर सब देख रहे हैं। स्वयं लक्ष्मी जी बैकुण्ठ से भगवान श्रीहरि के साथ, ब्रह्मा जी एवं सपरिवार भगवान शंकर जी के के साथ वहाँ आई हुई हैं।

राजा परीक्षित के पूछने पर कि भगवान होकर श्रीकृष्ण जी ने पराई स्त्रीयों का स्पर्श क्यों किया? शुकदेव कहते हैं-“राजन! सूर्य, अग्नि और ईश्वर कभी-कभी धर्म विरूद्ध कार्य करते दिखाई ज़रूर पड़ते हैं, परन्तु उन तेजस्वी पुरूषों को कोई दोष नहीं लगता। इसे ऐसे समझो। जैसे अग्नि सभी पदार्थों को भस्म कर देती है परन्तु पदार्थों के दोषों से लिप्त नहीं हो जाती। सूर्य की रश्मियाँ अच्छी-बुरी सभी जगहों पर पड़ती हैं परन्तु गुण-दोष ग्रहण नहीं करतीं। इसी प्रकार से ईश्वर भी तटस्थ रहते हैं, वे केवल दृष्टा हैं। जीवात्मा का भगवान में योग ही महारास की अन्तिम परम अनुभूति है। भगवान शिव हलाहल विष पी कर भी तटस्थ ही रहे। ये सब योगमाया ही है।”

' रास ' शब्द का मूल अर्थ ‘रस’ है। श्रीकृष्ण स्वयं रस के अवतार हैं। जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों में प्रकट होता है, उस रस का रसास्वादन करना ही ‘रास’ है। उसमें काम-भावनाओं की कोई स्थान नहीं है, ये प्रेम की पराकाष्ठा है। देह और देही का भेद अप्राकृत लोक में कहीं नहीं होता। इस भाव के प्रेम रस की एक झलक माता के वात्सल्य में भी देखी जा सकती है। इस भाव से हट कर ‘रास’ को कुछ और मानना अक्षम्य अपराध है। मीरा ने इन्हीं गोपियों का अनुसरण करके भगवान श्रीकृष्ण को पाया है।

श्री हरिवंशपुराणके विष्णुपर्व के बीसवॉं अध्याय में वैशम्पायनजी बताते हैं-“सारी गोप-किशोरियाँ मण्डलाकार पंक्ति बनाकर खड़ी हो जाती हैं और श्रीकृष्ण प्रत्येक गोपी के संग रास करते और गोपियाँ श्रीकृष्ण के चरित्र का गान करती हुई आनन्द का अनुभव करतीं हैं। (श्लोक स॰ २५)

श्री गर्गसंहिता के श्री वृंदावनखण्ड के उन्नीसवाँ अध्याय में भी रास लीला का विस्तार से वर्णन है। नारदजी कह रहे हैं-“वृंदावन दिव्यरूप में कामपूरक कल्पवृक्षों तथा माधवी लताओं से समलंकृत होकर नन्दनवन को भी तिरस्कृत करने लगा था, यमुना नदी की अपूर्व शोभा थी, बसन्त ऋतु की माधुरी भरी हुई थी।”( श्लोक स॰ २-१३ )

रासमण्डल में श्रीराधा के संग श्रीहरि वहाँ आये। उन्होंने अपनी प्राणवल्लभा राधा का हाथ अपने करकमल में ले रखा था। वहीं बैठ कर वे मीठी-मीठी बातें करते हुए अपने प्रिय वृंदाविपिन की शोभा निहारने लगे।

राधया शुशुभे रासे यथा स्त्या रतीश्वरः । एवं गायन् हरिः साक्षात् सुद्ररीरागसंवृतः ॥ यमुनापुलिनं पुण्यमाययौ राधया युतः । गृहीत्वा हस्तपद्येन पद्माभं स्वप्रियाकरम् ॥ निषसाद हरिः कृष्णातीरे नीरमनोहरे । (गर्ग०, वृन्दावन० १९। २५–२८)

इन्हें भी देखें[संपादित करें]