दूत

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मोहम्मद अली मुगल साम्राज्य में भेजे गये ईरान के शाह अब्बास के दूत थे।

दूत संदेशा देने वाले को कहते हैं। दूत का कार्य बहुत महत्त्व का माना गया है। प्राचीन भारतीय साहित्य में अनेक ग्रन्थों में दूत के लिये आवश्यक गुणों का विस्तार से विवेचन किया गया है।

विश्व के युगों-युगों के लम्बे इतिहास में राज्य के प्रभु-शासक सदा से दूत-पद्धति अपनाते आये हैं । विविध इतिहास में भारत का प्राचीनतम स्थान है उसमें भी वैदिक युग तो विश्व की सभ्यता और संस्कृति तथा शासन का आदि स्रोत प्रतीत होता है । वैदिक काल से ही दूत के उपयोग का प्रमाण प्राप्त होता है । रामायण और महाभारत काल में बड़ी समर्थता के साथ उनकी कार्य-पद्धति साकार हुई और फिर तो इस पद्धति में विकास और गठन की निपुणता ने क्रमशः जीवन्त रूप ग्रहण कर लिया। मौर्य, कुषाण, गुप्त, हर्ष, चोल, चालुक्य और पाण्ड्य आदि राजवंशों के शासन काल में दूत-पद्धति का उपयोग देशी तथा विदेशी राज्यों के साथ किया गया।[1]

प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारकों ने विदेश नीति और कूटनीतिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में कूटनीतिक प्रतिनिधि के महत्व को स्वीकार किया था । ये कूटनीतिक प्रतिनिधि प्रायः दो प्रकार के होते थे, प्रथम दूत और द्वितीय चर। ये दोनों ही कूटनीतिक प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते थे । यद्यपि दोनों का उद्देश्य दूसरे राज्यों से विभिन्न प्रकार की सूचनाओं को एकत्र करना होता था, फिर भी दूत और चर की कार्य-पद्धति में भिन्नता होती थी । दूत, प्रकट रूप में पर-राज्यों में शासन द्वारा भेजा जाता था, जबकि चर अथवा गुप्तचर अप्रकट रूप में अथवा छिप कर कार्य करता था । यही कारण है कि प्राचीन भारत यदा-कदा दूत को 'प्रकाशचर' तथा गुप्तचर को 'अप्रकाशचर' की संज्ञा प्रदान की गई है । प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारकों ने अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों के सन्दर्भ में दूत की महत्त्वपूर्ण भूमिका का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत कर शासकों का मार्गदर्शन किया है।

रामायण में लक्ष्मण से हनुमान का परिचय कराते हुए श्रीराम कहते हैं -

नूनं व्याकरणं क्रित्स्नं अनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपभाषितम् ॥
अविस्तरं असन्दिग्धं अविलम्बितं अद्रुतम्।
उरस्थं कन्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमे स्वरे ॥
उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयदारिणीम्।
कस्य नाराध्यते चित्त्तमुद्यतासेररेरपि ॥
एवं विधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु।
सिध्यन्ति ही कथं तस्य कार्याणां गतयोनघ ॥

(अवश्य ही इन्होने सम्पूर्ण व्याकरण सुन लिया लिया है क्योंकि बहुत कुछ बोलने के बाद भी इनके भाषण में कोई त्रुटि नहीं मिली।। यह बहुत अधिक विस्तार से नहीं बोलते; असंदिग्ध बोलते हैं; न धीमी गति से बोलते हैं और न तेज गति से। इनके हृदय से निकलकर कंठ तक आने वाला वाक्य मध्यम स्वर में होता है। ये कयाणमयी वाणी बोलते हैं जो दुखी मन वाले और तलवार ताने हुए शत्रु के हृदय को छू जाती है। यदि ऐसा व्यक्ति किसी का दूत न हो तो उसके कार्य कैसे सिद्ध होंगे?)

इसमें दूत के सभी गुणों का सुन्दर वर्णन है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. प्राचीन भारत में दूत पद्धति (गूगल पुस्तक ; लेखक - आनन्द प्रकाश गौड़)