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व्याधगीता

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व्याधगीता (शाब्दिक अर्थ: व्याध के गीत), महाभारत का एक भाग है। इसमें एक व्याध ने एक ब्राह्मण संन्यासी को शिक्षा दी है। यह कथा महाभारत के वाण पर्व में है और मार्कण्डेय ऋषि ने इसे युधिष्ठिर को सुनाया है। इस कथा में अहंकारी संन्यासी को व्याध ने सही धर्म की शिक्षा दी है।

व्याध की मुख्य शिक्षा यह है कि कोई भी काम नीच नहीं है ; कोई भी कार्य अशुद्ध नहीं है। वास्तव में कार्य कैसे किया जाता है उसी से उसका महत्त्व कम या अधिक होता है।

कथा[संपादित करें]

एक ब्राह्मण कुमार घर से निकल करके तपस्या करने के लिए चल देता है। एक दिन एक चिड़े ने उड़ते-उड़ते उसके ऊपर बीठ कर दिया। बीठ उसके ऊपर गिरा तो उसने उसे देखा तो चिड़ा भस्म हो कर नीचे गिर गया। उसने सोचा, अब मामला बना है, तपस्या रंग लाई है। वहाँ से उसने निश्चय कर लिया कि अब सिद्धि मिल गई। वह एक बस्ती में गया और एक घर में जाकर उसने भिक्षा के लिए ‘नारायण हरि’ की आवाज़ लगाई। एक माँ ने अन्दर से आवाज़ दी - ठहरिए महाराज! अभी आ रही हूँ। थोड़ी देर रुक गया, फिर आवाज़ लगाई - ‘भिक्षां देहि।’ माँ ने आवाज़ दी, महाराज! ठहरिए - मैं अभी आ रही हूँ। थोड़ी देर रुका, फिर आवाज़ लगाई। देवी ने फिर आवाज़ दी, भगवन्! मैं आपसे निवेदन कर रही हूँ, ठहरिए! मैं अभी आ रही हूँ। उसको तो अपनी तपस्या का नशा था। वह कहने लगा तुम्हें पता नहीं, मैं कौन हूँ, मेरी अवहेलना कर रही है तू? अन्दर से वह देवी बोली, मुझे पता है लेकिन आप यह न समझना कि मैं वह चिड़ा हूँ जिसको आप देखेंगे और वह जल जाएगा। मैं वह चिड़ा नहीं, याद रखो, खड़े रहो वहीं, अभी आ रही हूँ। अब उसका तपस्या का नशा उतर गया। उसके मन में आया कि इसको घर बैठे कैसे पता चला कि जंगल में मैं चिड़ा जला आया हूँ। थोड़ी देर बाद वह भिक्षा लेकर आई। ब्राह्मण ने पूछा - देवी ! हमें भिक्षा तो बाद में चाहिए, पहले यह हमें बताओ कि तुम्हें कैसे पता चला कि मैं ने चिड़े को भस्म कर दिया। उसने कहा, मेरे पास इतना समय नहीं है कि आपको बताऊँ। आप अपनी भिक्षा लीजिए और यदि आपको इस विषय में जानना है तो अमुक शहर में चले जाइए, वहाँ पर एक वैश्य रहते हैं, वह आपको बता देंगे।

वहाँ से वह सुदर्शन नाम का ब्राह्मण चला। नगर में वह वैश्य के पास गया, वह अपने व्यवसाय में लगा हुआ था। उसने देखा और कहा आइए! पण्डित जी! बैठ जाइए! वह बैठ गया। थोड़ी देर के बाद ब्राह्मण कहने लगा मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ। वैश्य ने कहा, जी हाँ - आपको उस स्त्री ने मेरे पास भेजा है क्योंकि आपने देखकर चिड़ा जला दिया है। अभी मेरे पास समय नहीं, यदि बहुत जरूरी हो फिर तो आप यहाँ से चले जाइए। अमुक नगर में एक व्याध रहता है, वह आपको सारी बात समझा देगा। यदि मेरे से ही समझना हो तो सायंकाल तक इन्तज़ार करना पड़ेगा।

ब्राह्मण को तो जल्दी थी, वह कहता है अच्छा! मैं उसी के यहाँ चला जाता हूँ। वह व्याध के पास गया तो वह मांस काट-काट कर बेच रहा था। व्याध बोला - आइए पंडित जी! बैठिए! आपको सेठजी ने भेजा है। कोई बात नहीं, विराजिए। अभी मैं अपना काम कर रहा हूँ, बाद में आपसे बात करूँगा। ब्राह्मण बड़ा हैरान हुआ। अब बैठ गया वहीं, सोचने लगा अब कहीं नहीं जाना, यहीं निर्णय हो जाएगा। सायंकाल जब हो गयी तो व्याध ने अपनी दुकान बन्द की, पण्डित जी को लिया और अपने घर की ओर चल दिया। ब्राह्मण व्याध से पूछने लगा कि आप किस देव की उपासना करते हैं जो आपको इतना बोध है। उसने कहा कि चलो वह देव मैं आपको दिखा रहा हूँ। पण्डित जी बड़ी उत्सुकता के साथ उसके घर पहुँचे तो देखा व्याध के वृद्ध माता और पिता एक पंलग पर बैठे हुए थे। व्याध ने जाते ही उनको दण्डवत् प्रणाम किया। उनके चरण धोए, उनकी सेवा की और भोजन कराया। पण्डित कुछ कहने लगा तो व्याध बोला - आप बैठिए, पहले मैं अपने देवताओं की पूजा कर लूँ, बाद में आपसे बात करूँगा। पहले मातृदेवो भव फिर पितृ देवो भव और आचार्य देवो भव तब अतिथि देवो भव, आपका तो चौथा नम्बर है भगवन्! अब वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि यह तो शास्त्र का ज्ञाता है।

जब ब्राह्मण ने पूछा कि आप इतने बड़े तत्त्वज्ञ होकर के इतना निकृष्ट कर्म क्यों करते हैं तो उसने कहा - भगवन्! कर्म कोई निकृष्ट नहीं होता। हम व्याध के यहाँ पैदा हुए हैं, मेरे बाप भी मांस बेचते थे, उनके बाप भी और यह धंधा हमें अपने पूर्वजों से मिला है, इसलिए हमें इससे कोई घृणा नहीं है क्योंकि जब तक इस दुनिया में कोई मांस खाने वाला होगा तो उसके लिए बेचने वाला भी होगा।

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