अधर्म
इसका अर्थ धर्म का एकदम विपरीत होता है। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार अधर्म की ५ शाखाएँ है[1]-
विधर्म[संपादित करें]
जिस कार्य को धरम बुद्धि से करने पर भी अपने धर्म में बाधा पडे़ उसे विधर्म कहते है।
परधर्म[संपादित करें]
किसी अन्य के द्वारा किसी अन्य पुरुष के लिये उपदेश किया हुआ धर्म "परधर्म" कहलाता है।
उपमा[संपादित करें]
आभास[संपादित करें]
मनुष्य अपने आश्रम के विपरीत स्वेच्छा से जिसे धर्म मान लेता है वह आभास कहलाता है।
सन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध-७, अध्याय-१५, श्लोक-१२